जाना किधर था
ना जाने कहाँ, बढ़ रहा हूँ,
दूसरों की किस्मत लिखनी थी,
खुद की लकीरें, पढ़ रहा हूँ,
जाना किधर था
ना जाने कहाँ,बढ़ रहा हूँ,
दूसरों की किस्मत लिखनी थी,
खुद की लकीरें,पढ़ रहा हूँ,
गुस्सा सबसे हूँ,
पर खुद से,लड़ रहा हूँ,
हासिल तो नहीं किया कुछ,
फिर क्या खोने से डर रहा हूँ,
इन धड़कनों पर मत जाओ,
जिंदा हूँ मगर अंदर से,मर रहा हूँ!!
@ अजय कुमार सिंह, छपरा (सारण)